Yogi Cabinet 2.0 में उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबी रानी मौर्य, कैसे हुई सक्रिय राजनीति में वापसी और क्यों?


देहरादून/लखनऊ. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार (Uttar Pradesh Government) में जिन 52 मंत्रियों ने 25 मार्च को शपथ ग्रहण की, उनमें एक नाम उत्तराखंड की पिछली राज्यपाल बेबी रानी मौर्य का भी रहा. उत्तर प्रदेश के एक हिस्से में दलित राजनीति (Dalit Politics) का प्रमुख चेहरा मानी जाने वाली मौर्य ने पिछले साल उत्तराखंड के राज्यपाल के पद से इस्तीफा दिया था और एक बार फिर सक्रिय राजनीति में कूदी थीं. आगरा देहात (Agra Rural Constituency) सीट से चुनाव लड़कर वह इस बार विधानसभा में पहुंचीं और शुक्रवार को इकाना स्टेडियम (Ikana Stadium) में आयोजित भव्य समारोह में उन्होंने योगी कैबिनेट के साथ शपथ ग्रहण की.

तीन साल उत्तराखंड की राज्यपाल रहने के बाद उन्हें भारतीय जनता पार्टी ने अपना राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नियुक्त किया था और हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election) में वह विधायक चुनी गईं. समाचार एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड का राज्यपाल पद सितंबर 2021 में छोड़ने वाली 65 वर्षीय मौर्य के बारे में तब भी यही चर्चा थी कि वह पार्टी की इच्छा के मुताबिक राजनीति में दोबारा सक्रिय होना चाह रही थीं. मौर्य के बाद पूर्व सैन्य अधिकारी गुरमीत सिंह उत्तराखंड के राज्यपाल बनाए गए थे, जिन्होंने हाल में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी और उनकी कैबिनेट (Pushkar Dhami Cabinet) को शपथ दिलवाई.

आगरा की पहली महिला मेयर रहीं मौर्य
बेबी रानी मौर्य एमए तक शिक्षित हैं और उन्होंने बीएड की डिग्री भी हासिल की है. वह पहले राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य भी रह चुकी हैं और भाजपा में भी कई ज़िम्मेदारियां संभाल चुकी हैं. उनके पति प्रदीप कुमार बैंक में वरिष्ठ पद से रिटायर हो चुके हैं. 2007 में मौर्य ने एतमादपुर से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गई थीं. इससे पहले उन्होंने 1995 में भाजपा का दामन थामा था और आगरा की पहली महापौर बनी थीं.

बसपा के गढ़ में मौर्य ने बनाई पकड़
आगरा के बेल्ट को पहले बहुजन समाज पार्टी का गढ़ माना जाता था और यहां दलित आबादी में उसका वोट बैंक था. 2014 से ही भाजपा बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में थी. 2022 चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी जॉइन कर लेने के बाद से ही भाजपा को दलित वोटरों के बीच पैठ रखने वाले चेहरे की तलाश थी.

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