जवाहरलाल नेहरू के करीबी, इस्लामिक विद्वान; ऐसे थे UP के स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अब्दुल कयूम


सिद्धार्थनगर: उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थनगर जिले के ढेबरूआ थाना क्षेत्र के दूधवनिया बुजुर्ग गांव में 10 जनवरी 1920 को जन्मे मौलाना अब्दुल कयूम रहमानी ना तब पहचान के मोहताज थे ना अभी हैं. देश की आजादी की लड़ाई में शामिल होने के साथ इस्लामिक शिक्षा जगत में मध्यपूर्व के देशों में भी उनका जाना पहचाना नाम है. वह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबियों में से एक थे और कई सारे मुद्दों पर उनकी राय ली जाती थी.

मौलाना अब्दुल कयूम का प्रारंभिक जीवन
अब्दुल कयूम गांव के परिषदीय स्कूल से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चले गए थे. वह दौर था जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई चल रही थी. दिल्ली के रहमानिया स्कूल से इस्लामिक स्टडीज की उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे. उनकी दिल्ली में बड़े-बड़े आंदोलनकारियों से अच्छी खासी जान पहचान थी. पंडित नेहरू से अक्सर मुलाकात भी हो जाया करती थी. वर्ष 1942 में अपने गांव लौटे और आजादी की जंग को आगे बढ़ाने की तैयारी में जुटे हुए थे. तैयारी का कुछ दिन ही गुजरा था तभी उन्हें 22 मार्च 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तार कर उन्हें नैनी जेल भेज दिया गया था. 22 मई 1943 तक जेल में नजरबंद रहे. जिस बैरक में उन्हें नजरबंद किया गया था, उसमें लाल बहादुर शास्त्री, फिरोज गांधी, मौलाना हुसैन मदनी जैसे कई बड़े आंदोलनकारी नजरबंद थे.

मौलाना अब्दुल कयूम नेहरू के थे करीबी
मौलाना अब्दुल कयूम देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबियों में शामिल थे. वर्ष 1952 में जब पहली एशियन रिलेशनशिप कॉन्फ्रेंस हुई, तब पंडित नेहरू ने मौलाना को भी आमंत्रित किया था. मौलाना अब्दुल कयूम की मृत्यु 28 मई 2008 को हुई. स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अब्दुल कयूम रहमानी के पुत्र बदरे आलम कहते हैं कि वालिद के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने पर उन्हें और उनके परिवार को गर्व है. उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई लड़ने के साथ शिक्षा का भी अलख जगाने के काम किया. उनके नाम पर मौलाना अब्दुल कयूम रहमानी ट्रस्ट स्थापित है.

इस्लामिक विद्वान थे मौलाना अब्दुल कयूम, व्याख्यान देने जाते थे विदेशों में
जब देश आजाद आजाद हुआ तो मौलाना अब्दुल कयूम रहमानी शिक्षा की अलख जगाने में जुट गए थे. उन्होंने जिले के भारत-नेपाल सीमा निकट बढ़नी गांव के गांधी आदर्श इंटर कॉलेज की स्थापना की और इसके संस्थापक सदस्य भी रहे. बाद में प्रबंधक भी बन कर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किया. इस्लामिक विद्वान होने की वजह से मध्यपूर्व के देशों में भी उनकी अपनी पहचान थी. कुवैत की संस्था द्वारा न्योता देने पर वहां पर व्याख्यान देने जाते थे.

हिंदी अंग्रेजी और अरबी भाषा पर थी जबरदस्त पकड़
मौलाना अब्दुल कयूम की हिंदी, अंग्रेजी एवं अरबी भाषा पर जबरदस्त पकड़ थी और यही नहीं, वर्ष 1952 में एशियन रीक्रिएशन रिलेशनशिप कॉन्फ्रेंस में उन्हें द्विभाषिये के तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने साथ लेकर गए थे.

तोहफे के रूप में मिले कपड़े को कर दिया था वापस
मौलाना अब्दुल कयूम सऊदी अरब एवं कुवैत में इस्लामिक व्याख्यान देने गए थे, तब वहां के लोगों ने उन्हें तोहफे के तौर पर वहां का सबसे शानदार कपड़ा दिया था लेकिन उन्होंने भरी सभा में यह कहकर लौटा दिया कि यह कपड़ा मेरे लिए विदेशी है और मैं सिर्फ और सिर्फ खादी के ही कपड़ों को पहनता हूं. उनकी इस बात से खुश होकर तत्कालीन अरब देशों के प्रशासनिक मंत्रियों ने भारत से खादी का कपड़ा मंगवा कर उन्हें तोहफे के रूप में दिया. मौलाना अब्दुल कयूम सिर्फ इस्लामिक विद्वान ही नहीं थे बल्कि आम जनमानस की हर स्तर पर मदद करते थे और उनकी इसी विचारधारा को लेकर उनके पुत्र ने मौलाना अब्दुल कयूम रहमानी ट्रस्ट की स्थापना की. आज भी उनकी बातों का जिक्र इस्लामिक विद्वान अपने विभिन्न लेखों में करते रहते हैं.

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