Azadi Ka Amrit Mahotsav: चंबल की घाटियों में बनी थी लालसेना, खास थे इटावा के कमांडर भदौरिया


हाइलाइट्स

अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था.
भदौरिया ने बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए थे.

इटावा. डाकुओं के आंतक लिए कुख्यात समझी जाने वाली चंबल घाटी में आजादी की मुहिम में अर्जुन सिंह भदौरिया का भी योगदान माना जाता है. उन्हें इसी मुहिम के कारण कंमाडर नाम से पुकारा गया था. अर्जुन सिंह भदौरिया की अगुवाई में चंबल में स्थापित की गई लालसेना की यादें आज भी लोगों के जेहन में समाई हुई हैं.

कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया की लालसेना के महत्वपूर्ण हिस्सा रह चुके इटावा जिले के टकपुरा गांव के निवासी गुलजारी लाल के पौत्र वरिष्ठ पत्रकार गणेश ज्ञानार्थी बताते हैं कि उनके बाबा रायॅल एसर फोर्स में सेवारत हुआ करते थे. लेकिन 1920 में महात्मा गांधी के अग्रेंजों भारत छोड़ो आवाहन से प्रेरित होकर नौकरी छोड़कर आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. कंमाडर साहब के साथ मिल कर चंबल नदी के किनारे तोप चलाने से लेकर बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी बकायदा अपने साथियों को दिया करते थे.

ज्ञानार्थी का कहना है कि लालसेना में करीब 5 हजार के आसपास सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी किया करते थे. उनका कहना है कि असल में लालसेना से लोगों का जुड़ाव इसलिए बढ़ा था क्योंकि ग्वालियर रियासत की सहानूभूति अग्रेंजों के प्रति हुआ करती थी इसलिए जब चंबल में कंमाडर साहब ने लालसेना खड़ी की तो लोग एक के बाद एक करके जुड़ना शुरू हो गए.

चीन और रूस से ली थी प्रेरणा

एक समय वो भी आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल में नजर आने लगा और अग्रेंज सेना के दांत खटटे कर दिए थे. कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया के बेटे सुधींद्र भदौरिया बताते हैं कि चंबल मे लालसेना के जन्म की कहानी भी बड़ी ही दिलचस्प है. उस समय हर कोई आजादी का बिगुल फूंकने मे जुटा हुआ था इसलिए उनके पिता भी आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. उन्होंने चंबल घाटी में लालसेना का गठन करके लोगों को जोड़ना शुरू किया. इसकी प्रेरणा उनको चीन और रूस में गठित लालसेना से मिली थी, जो उस समय दोनों देशों में बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था.

उनका कहना है कि लालसेना के गठन के वक्त जो प्रण उनके पिता ने चंबल के विकास के लिए किया था, वो उन्होंने राजनीतिक पारी के साथ होने पर पूरा करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई. उनको आज भी याद है कि चंबल नदी पर पुल का निर्माण नहीं था, तब पीपे का पुल बना हुआ था. जब कभी भी चंबल के पार जाना होता था, तब पीपे के पुल के ही माध्यम से जाना हुआ करता था.

44 साल की हुई थी सजा

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाल सेना का गठन किया, जिसने उत्तर प्रदेश के इटावा मे चंबल घाटी में आजादी का बिगुल फूंकते हुए अग्रेंजी राज के छक्के छुड़ा दिए. इस क्रांतिकारी संग्राम में पूरा इटावा झूम उठा. करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई. कमांडर ने आजादी की जंग पूरी ताकत, जोश, कुर्बानी के जज्बे में सराबोर हो कर लड़ी. उन्होंने क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की. ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया. इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया.

52 बार गए जेल

अंग्रेज कंमाडर से इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ पैरों में बेड़िया डालकर रखा जाता था. अपने उसूलों के लिए लड़ते हुए वे तकरीबन 52 बार जेल गए. आजादी की लड़ाई में अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत की बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को स्वतंत्रता सेनानियों ने कमांडर की उपाधि से नवाजा. कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया. तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी, जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुन कर उन्हे सर आंखों पर बैठाया.

संसद में भी दिखता था जुदा अंदाज

10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. 1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया. बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए. इसके बाद उन्हें कमांडर कहा जाने लगा. 1957, 1962 और 1977 में इटावा से लोकसभा के लिए चुने गए. कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया का संसद में भी अंदाज बिल्कुल जुदा रहा. 1959 में रक्षा बजट पर सरकार के खिलाफ बोलने पर उन्हें संसद से बाहर उठाकर फेंक दिया गया. लोहिया ने उस वक्त उनका समर्थन किया था.

चंबल घाटी में रेल संचालन का सपना

1957 मे पहली बार सांसद बनने के बाद चंबल मे कंमाडर के रूप से लोकप्रिय अर्जुन सिंह भदौरिया ने सदियों से उपेक्षा की शिकार चंबल घाटी में विकास का पहिया चलाने को लेकर वे काफी चिंतित थे. इसके लिए उन्होंने रेल संचालन का खाका खींचते हुए 1958 में तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने एक लंबा चौड़ा मांग पत्र इलाकाई लोगों के हित के मद्देनजर रखा था. कंमाडर 1957 के बाद 1962 और 1977 में भी इटावा के सांसद निर्वाचित हुए लेकिन उनकी चंबल घाटी में रेल संचालन की योजना किसी भी स्तर पर शुरू नहीं हो सकी.

कंमाडर के चंबल रेल संचालन की योजना को 1986 में माधव राव सिंधिया ने पूरा करने का बीड़ा उठाते हुए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने रखा, जिस पर तत्कालिक तौर पर अमल शुरू हो गया.

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